किसान-कवि, लेखक और निर्भीक पत्रकार पंडित माखनलाल चतुर्वेदी राजद्रोह में जेल गए, CM पद ठुकराया और सम्मान लौटाया
शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिसने स्कूली शिक्षा के दौरान या फिर साहित्य-अध्ययन के दौरान ‘पुष्प की अभिलाषा’ कविता न पढ़ी हो.
चाह नहीं मैं सुरबाला के, गहनों में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध, प्यारी को ललचाऊं
चाह नहीं सम्राटों के शव पर, हे हरि डाला जाऊं
चाह नहीं देवों के सिर पर, चढूं भाग्य पर इठलाऊं
मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ पर जावें वीर अनेक
यह प्रसिद्ध कविता सुप्रसिद्ध कवि, लेखक एवं पत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी की अमर रचना है. ओजपूर्ण भावना के अनूठे साहित्यकार एवं निर्भीक पत्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल, 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के बावई में हुआ था.
1905 से माखनलाल जी अंग्रेज सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे क्रांतिकारियों के संपर्क में या गए थे. वे जहां-तहां किसी-न-किसी रूप में क्रांतिकारी गतिविधियों में भी भाग लेने लगे थे. जब 1906 में लोकमान्य तिलक कलकत्ता पहुंचे तो उनकी सुरक्षा के लिए माखनलाल जी कलकत्ता गए थे. आगे चलकर क्रांतिकारियों से इनका संपर्क बढ़ता चला गया.
तत्कालीन क्रांतिकारियों एवं पत्रकारिता में ऊंचा नाम कमाने वाले सैयद अली मीर, माधवराव सप्रे इत्यादि से मिलकर ये बहुत प्रभावित हुए, बल्कि आगे चलकर माधवराव सप्रे तो इनके राजनीतिक गुरु भी बने, जिन्होंने माखनलाल जी में देशभक्ति की भावना को पुष्ट किया. इस समय तक माखनलाल जी एक कवि के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे.
आशा ने जब अंगड़ाई ली
विश्वास निगोड़ा जाग उठा
मानो पा, प्रात पपीहे का
जोड़ा प्रिय बंधन त्याग उठा
माखनलाल जी का झुकाव साहित्य की ओर होने लगा था और इसी कारण इनके सामने यह समस्या या खड़ी हुई कि ये अध्यापकी और साहित्य, दोनों में से किसी एक का चुनाव करें और इन्होंने काफी सोच-विचार के बाद अध्यापकी को नमस्कार कर साहित्य को अंगीकार कर लिया. साहित्य के बारे में इनके विचार विशिष्ट रूप से उल्लेखनीय हैं—
“साहित्य का उचित स्थान वह हृदय है, जिसमें पीढ़ियां और युग अपने विश्वास को धरोहर की तरह छिपाकर रख सकें. ऐसे हृदय ही में कला का उदय होता है.”
माखनलाल जी की सक्रियता बढ़ती जा रही थी— क्रांतिकारी गतिविधियों में भी और साहित्य-क्षेत्र में भी. इसी कारण ये अपने परिवार को उचित समय नहीं दे पा रहे थे. इनकी जीवनसांगिनी राजयक्ष्मा जैसी घातक बीमारी का शिकार हो इस दुनिया से चल बसी थीं, जिससे माखनलाल जी बहुत आहत हुए. अति व्यस्तता के कारण ये अपनी जीवनसांगिनी पर कोई विशेष ध्यान न दे पाए, जिसका इन्हें बहुत दुख हुआ. इनका यह दुख इनकी कविता में कुछ इस प्रकार व्यक्त हुआ है—
भाई, छेड़ो नहीं, मुझे खुलकर रोने दो
यह पत्थर का हृदय, आंसुओं से धोने दो
रहो प्रेम से तुम्हीं, मौज से मंजु महल में
मुझे दुखों की इसी झोपड़ी में सोने दो
पत्रकारिता के पुरोधा
माखनलाल जी जितने ऊंचे साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं, उतनी ही इनकी ख्याति एक पत्रकार के रूप में भी है. इन्हें एक निर्भीक पत्रकार के रूप में याद किया जाता है. यह 1913 का साल था, जब ये ‘प्रभा’ नामक पत्रिका से संपादक के रूप में जुड़े.
इस पत्रिका से जुडने के बाद इनकी मुलाकात गणेशशंकर विद्यार्थी, माधवराव सप्रे, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इत्यादि से हुई. इसके बाद ये 1920 में जबलपुर से निकलने वाले साप्ताहिक ‘कर्मवीर’ से बतौर संपादक आ जुड़े, जिसके प्रधान संपादक माधवराव सप्रे थे. इसके पहले अंक में ही माखनलाल जी ने अपनी निर्भीक पत्रकारिता का संदेश दे दिया था—
“हमारी आंखों में भारतीय जीवन गुलामी की जंजीरों से जकड़ा दिखता है. हृदय की पवित्रतापूर्वक हर प्रयत्न करेंगे कि वे जंजीरें फिसल जाएं या टुकड़े-टुकड़े होकर गिरने की कृपा करें. हम जिस तरह भीरुता नष्ट कर देने के लिए तैयार होंगे, उसी तरह अत्याचारों को भी… हम स्वतंत्रता के हामी है. मुक्ति के उपासक हैं.”
‘कर्मवीर’ नाम भी माखनलाल जी ही का सुझाया हुआ नाम था और इस पत्र का जैसा नाम था, वैसा ही इसका काम भी था. इस पत्र में बेधड़क और निर्भीक होकर देशी रियासतों के भ्रष्टाचारी राजा-महराजाओं का समय-दर-समय भंडाफोड़ होता रहता था.
फिर एक समय वह भी आया, जब एक महाराजा ने बहुत मोटी रकम के एवज में ‘कर्मवीर’ को खरीदना चाहा, लेकिन माखनलाल जी अपने ईमान से डिगे नहीं.
अपनी निर्भीक पत्रकारिता के कारण इन्हें ‘राजद्रोह’ के मुकदमे में जेल भी जाना पड़ा, लेकिन इन्होंने सच्ची पत्रकारिता का दामन न छोड़ा और अपने सच्चे पत्रकार-धर्म को निभाते रहे. ऐसा भी समय आया, जब 15 से ज्यादा रियासतों ने ‘कर्मवीर’ को अपने यहां पढ़े जाने पर रोक लगा दी, लेकिन इसके बावजूद माखनलाल जी ने सच्ची पत्रकारिता के रूप को बिगड़ने न दिया. इस पत्र के 25 सितंबर, 1925 के अंक में इन्होंने जो लिखा, उससे इनकी निर्भीक और आला दर्जे की पत्रकारिता का अंदाजा लगाया जा है—
“…उसे नहीं मालूम कि धनिक तब तक जिंदा है, राज्य तब तक कायम है, ये सारी कौंसिलें तब तक हैं, जब तक वह अनाज उपजाता है और मालगुजारी देता है. जिस दिन वह इनकार कर दे, उस दिन समस्त संसार में महाप्रलय मच जाएगा. उसे नहीं मालूम कि संसार का ज्ञान, संसार के अधिकार और संसार की ताकत उससे किसने छीनकर रखी है और क्यों छीनकर रखी है. वह नहीं जानता कि जिस दिन वह अज्ञान इनकार कर उठेगा, उस दिन ज्ञान के ठेकेदार स्कूल फिसल पड़ेंगे, कॉलेज नष्ट हो जाएंगे और जिस दिन उसका खून चूसने के लिए न होगा, उस दिन देश में यह उजाला, यह चहल-पहल, यह कोलाहल न होगा.”
माखनलाल जी मिट्टी से जुड़े उच्च श्रेणी के कवि-पत्रकार थे. जिस तरह आज किसान तरह-तरह की समस्या से दो-चार हैं, अंग्रेजी दौर में भी भारतीय किसान तरह-तरह की समस्या से ग्रस्त थे. किसानों की समस्या देखकर माखनलाल जी आहत हो उठते थे. इन्होंने ‘कर्मवीर’ में किसानों के बारे में अपने विचार कुछ इस प्रकार व्यक्त किए हैं—
“फौज और पुलिस, वजीर और वाइसराय सब कुछ किसान की गाढ़ी कमाई का खेल है. बात इतनी ही है कि किसान इस बात को जानता नहीं, यदि उसे अपने पतन के कारणों का पता हो और उसे अपने ऊंचे उठने के उपायों का ज्ञान हो जाए तो निस्संदेह किसान कर्मपथ में लग सकता है.”
कुछ समय के लिए माखनलाल जी गणेशशंकर विद्यार्थी के पत्र ‘प्रताप’ से भी जुड़े रहे, जब गणेशशंकर जी को अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था.
साहित्य-साधना को माना सर्वोपरि
देश आजाद हो चुका था और आजादी के बाद राज्यों का गठन किए जाने का काम शुरू हो गया था. जब मध्य प्रदेश का गठन हुआ तो इसके अस्तित्व में आने के बाद यह बात सामने आई कि इस राज्य की बागडोर कौन संभाले. किसी एक नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी. फिर तीन नाम मुख्यमंत्री पद के लिए सुझाए गए— माखनलाल चतुर्वेदी, रविशंकर शुक्ल और द्वारका प्रसाद मिश्र.
माखनलाल जी को जब यह बताया गया कि इनके नाम को इस पद के लिए सुझाया गया है तो इन्होंने इस पद को स्वीकार करने से साफ इनकार कर दिया. इन्होंने इस पद की अपेक्षा साहित्य-साधना को अधिक तरजीह दी और कहा कि मैं पहले से ही शिक्षक और साहित्यकार होने के नाते ‘देवगुरु’ के आसन पर बैठा हूं. मेरी पदावनति करके तुम लोग मुझे ‘देवराज’ के पद पर बैठना चाहते हो, जो मुझे सर्वथा अस्वीकार्य है.
वे महान कवि थे. निराले थे. अदभुत गद्य-लेखक थे. शैलीकार थे. राजनीतिक, समाजिक टिप्पणीकार थे. इतने गुणों से युक्त उनका एक ‘लीजेंडरी’ व्यक्तित्व था. मझोले कद, गौर वर्ण, चिंतनशील आंखों और लंबी नुकीली नाक वाले इस व्यक्तित्व में एक गजब कोमलता तथा दबंगपन था.
माखनलाल चतुर्वेदी बहुमुखी प्रतिभा से युक्त महान साहित्यकार, निर्भीक पत्रकार और कुछ मायनों में क्रांतिकारी भी थे. गांधीजी से प्रभावित हो इन्होंने गांधीवाद का भी अनुसरण किया, जिनके आह्वान पर इन्होंने ‘असहयोग आंदोलन’ में अपनी गिरफ्तारी भी दी.
माखनलाल जी ने साहित्य-साधना करते हुए कविताएं, निबंध, नाटक और कहानी इत्यादि विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई और साहित्य को नवीन ऊंचाइयों पर पहुंचाने का कार्य किया. इनकी रचनाओं में ‘हिम किरीटिनी’, ‘हिमतरंगिणी’, ‘समर्पण’, ‘युग चरण’ ‘मरण ज्वार’ (कविता-संग्रह), ‘कृष्णार्जुन युद्ध’, ‘साहित्य के देवता’, ‘समय के पांव (गद्य रचना) इत्यादि मुख्य रूप से शामिल हैं.
‘हिम किरीटिनी’ के लिए ‘देव पुरस्कार’ तो ‘हिमतरंगिणी’ के लिए माखनलाल जी को ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. जबकि ‘पुष्प की अभिलाषा’ एवं ‘अमर राष्ट्र’ अमर रचनाओं के लिए इन्हें सागर विश्वविद्यालय द्वारा 1959 में डी.लिट. की उपाधि से विभूषित किया गया.
1963 में इन्हें भारत सरकार द्वारा ‘पद्मभूषण’ से भी अलंकृत किया, लेकिन जब 1967 में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने की अवधि में परिवर्तन करने के लिए विधेयक पारित किया गया तो इसके विरोध में साहित्य-पथ के अनुरागी माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘पद्मभूषण’ सम्मान लौटा दिया था. इसके अलावा अन्य अनेक पुरस्कारों से सम्मानित यह महान साहित्य-साधक एवं निर्भीक पत्रकार 30 जनवरी, 1968 को अनंत में विलीन हो गए. इनके बारे में इन्हीं की एक कविता को समापक के रूप प्रस्तुत करना उचित रहेगा—
सूली का पथ ही सीखा हूं
सुविधा सदा बचाता आया
मैं बलि-पथ का अंगारा हूं
जीवन-ज्वाल जगाता आया
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एम.ए. समीर कई वर्षों से अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थानों से लेखक, संपादक, कवि एवं समीक्षक के रूप में जुड़े हैं. देश की विभिन्न पत्रिकाओं में इनके लेख प्रकाशित होते रहते हैं. 30 से अधिक पुस्तकें लिखने के साथ-साथ अनेक पुस्तकें संपादित व संशोधित कर चुके हैं.