A scholar’s Article “Dar-e-Hussain pe milte hain har khayaal ke log” – authored by Farhat Rizvi
Muharram is a month of remembrance that is often considered synonymous with Ashura. Ashura, which literally means the “Tenth” in Arabic, refers to the tenth day of Muharram. It is well-known because of historical significance and mourning for the murder of Ḥusayn ibn Ali, the grandson of Muhammad. Mourning begins from the first night of Muharram and continue for ten nights, climaxing on the 10th of Muharram, known as the Day of Ashura. The last few days up until and including the Day of Ashura are the most important because these were the days in which Hussain and his family and followers (including women, children and elderly people) were deprived of water from the 7th onward and on the 10th, Husayn and 72 of his followers were killed by the army of Yazid I at the Battle of Karbala on Yazid’s orders. The surviving members of Husayn’s family and those of his followers were taken captive, marched to Damascus, and imprisoned there.
दरे हुसैन पे मिलते हैं हर ख़्याल के लोग
महात्मा गांधी ने अपनी एक तक़रीर में कहा था कि “ मैंने कर्बला की अल्मनाक दास्तान उस वक्त पढ़ी जब मैं नौजवान था, उसने मुझे बहुत मुतास्सिर किया“। उन्होंने कई बार कर्बला और इमाम हुसैन के अज़्म का हवाला दिया है और कहा कि मैं देश वासियों के सामने कोई नई बात पेश नहीं करता हूं बल्कि मैंने कर्बला के हीरो की ज़िंदगी का बग़ौर मुताला किया है इससे मुझे यक़ीन हो गया है कि हिंदुस्तान की अगर निजात हो सकती है तो हमें हुसैनी असूलों पर अमल करना चाहिए।“
महात्मा गांधी का ये क़ौल भी बहुत मशहूर है कि अगर मेरे पास इमाम हुसैन जैसे 72 सिपाही होते तो मैं भारत की आज़ादी महज़ 24 घंटे में हासिल कर लेता। गांधी ही नहीं बल्कि नेलसन मंडेला, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू, प्रेमचन्द, रवीन्द्रनाथ टेगोर, सरोजनी नायडू वग़ैरा इन सभी ने इमाम हुसैन की ज़िंदगी और कर्बला में हक़ो-बातिल (धर्म-अधर्म) की जंग में इमाम की साबित क़दमी और हिकमते- अमली से अपने लिए कुछ ना कुछ पैग़ाम कस्ब किया है।
जोश मलीहाबादी का कहना दुरुस्त है कि…
क्या सिर्फ़ मुसलमान के प्यारे हैं हुसैन
चरख़-नौए-बशर के तारे हैं हुसैन
इंसान को बेदार तो हो लेने दो
हर क़ौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन
आज हम उन दुरवेशों की बात करते हैं जिन्होंने फ़लसफ़ा-ए-कर्बला के रूहानी पैग़ाम को बड़ी अक़ीदत के साथ अदब की सिन्फ़ रसाई शायरी (शोक कविता की शैली)यानि मरसिया निगारी को आला मुकाम तक पहुंचाने में मदद की।
हिंदुस्तान साधु-संतों और सूफ़ी-औलिया का देश है, यहां वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण और भागवत गीता जैसे धर्मग्रंथ लिखे गये। जहां रामायण के महानायक पुरुषोत्तम श्रीराम आमजन के आइडियल रहे हों, वहां जब मुसलमान पहंचे तो इनमें ना सिर्फ़ सुलतान थे, बल्कि सिपाही थे, फ़नकार, हुनरमंद थे, कारोबारी आमजन थे, सूफ़ी-क़लंदर भी थे। भारत की सरज़मीन पर भक्ति और श्रृधा के सुर गूंज रहे थे, ज़र्रे ज़र्रे में राम और कृष्ण बसे थे। भक्तिभाव में सरशार यहां की नम मिट्टी ने बहुत जल्द इन लोगों को अपना लिया। सियासी सियाक़ो-सबाक़ से क़तानज़र वस्त एशिया से आने वालों के साथ लिहसानी और सक़ाफ़ती लेनदेन की स्तह पर एक नया कल्चर वुजूद में आने को बेताब था। दोनों तरफ़ से मज़हबी अक़ायद, कल्चर की रिवायतों, ज़बान और अदबी रुझानात का लेनदेन शुरू हुआ, जिससे जन्मी गंगा-जमनी तहज़ीब या साझी संस्कृति। हिंदुस्तान मे आने वाले मुसलमान अपने साथ कर्बला की कहानी भी लाए थे। अय्यामे अज़ा शुरू हुए तो ईरान और इराक़ से आने वाले सरदारों, उमरा, सिपाहियों की टोलियों में ज़िक्रे हुसैन शुरू हो गया। महाभारत का अलमिया भारत मे हो चुका था, इमाम हुसैन की क़ुर्बानी ने अहले हुनूद के दिलों में ऐसा सोज़ो गुदाज़ पैदा किया वो असर अंदाज़ हुए बिना नहीं रह सके।
एक हिंदू शायर नथ्थू लाल वहशी कह रहे हैं कि
अल्लह रे तश्निगी मेरे ज़ौक़े सफ़ात की
गंगा से हमकिनार हैं मौजें फ़ुरात की
सक़ाफ़ती मेल-मिलाप के इस मौसम में एक तरफ़ मुक़ामी बोलियों के साथ अरबी-फ़ारसी के टकराव से एक नई ज़बान जन्म ले रही थी, तो दूसरी तरफ़ दो मुख़तलिफ़ मज़ाहिब की यकरंगी एक दूसरे को अपनी तरफ़ मायल कर रही थीं। क़ुली क़ुतुब शाह, अफ़ज़ल कैरानवी, मलिक मोहम्मद जायसी, मुल्ला दाऊद, कुतबुन, अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना, रसखान और दारा शिकोह हिंदूधर्म दर्शन (यानी मज़हबी फ़लसफ़े) को बड़ी संजीदगी से समझने में लगे थे तो बहुत से हिंदू नबी-ए-करीम मोहम्मद मुस्तफ़ा व आले मोहम्मद की ज़िंदगी से एक रूहानी पैग़ाम (आध्यात्मिक संदेश) कस्ब कर रहे थे। इस रूहानी अहसास का उन्होंने अपनी तख़लीक़ात में पूरी अक़ीदत के साथ इज़हार किया। ईराक़ में कर्बला में मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन की शहादत से मुताल्लिक़ हक़-ओ-बातिल के इस धर्मयुध की कहानी को अहले हुनूद ने भी रसाई शायरी में पेश किया। ग़ालेबन 15वीं 16वीं सदी में हिंदू शायरों के मरसिये मुक़ामी ज़वान तक महदूद थे, 16वीं-17वीं सदी में ग़ैर मुस्लिम मरसिया लिखने वालों में पहला नाम राम राव का है। जो जुनूबी हिंदुस्तान में गुलबर्गा का रहने वाला क़ुतुबशाही (1680) अमीर था। यहां से वो बीजापुर चला गया और शिवा तख़ल्लुस इख़्तियार करके मरसिये लिखे। शिवा ने रोज़ातुशोहदा का दकनी ज़वान में तर्जुमा किया और इसी में अपने मरसिये शामिल कर दिये। इसका ज़िक्र क़ुदरतुल्लाह ख़ां क़ासिम ने अपने तज़किरे मजमुए नगर में किया है नमूनए कलाम पेश नहीं किया, दूसरा अहम नाम दास का है।
दास का नमूना-ए-कलाम यूरोप में दकनी मख़तूतात (पांडूलिपि) में ये कलाम दर्ज है
मज़लूम हो गया है जहां सू वो शैसवार
शै के दुखों में दास के हैं चश्म अश्कबार
रोता है यूं दरेग़ सतीं ज़ार ज़ार ज़ार
मारे हैं ज़ालिमों ने नबी के रतन को आज
शिवा और दास की रिवायत को आगे बढ़ाते हुए जुनूब (दक्षिण) के दीगर शायरों मसलन मक्खन दास बालाजी, तरम्बक तारा, स्वामी प्रसाद असग़र, सिरी, मालिक जी, नानक ज़र्रा लम्बी फ़ेहरिस्त है, इन्होंने ने भी वाक़-ए-कर्बला को अपनी शायरी का मौज़ू बनाया। लेकिन उन सबका कलाम रसाई शायरी के ज़ैल में तो आता है पर उन्हें मरसिया नहीं कह सकते। हैयत के ऐतबार से दकन में पहला गैर मुस्लिम मरसियागो महाराजा किशन प्रसाद को कह सकते हैं…
पहले मुस्लिम को किया क़त्ल मुसलमानों ने
हाय किया ज़ुल्म किया जानके नादानों ने
घर को बरबाद किया घर कि निगहबानों ने
क़ाफ़िला लूट लिया मिलके हदी ख़्वानों ने
कमर अब टूट गई शाह की ताक़त ना रही
जब हरावल ना रहा फ़ौज की शौकत ना रही
वाज़े रहे कि ये मामला यकतरफ़ा नहीं था। मुग़लिया दौर में बादशाह अकबर की ईमा पर पहली बार रामायण और महाभारत का फ़ारसी व अरबी में तर्जुमा हुआ। दारा शिकोह ने उपनिषदों का फ़ारसी में तर्जुमा करके इस रुझान को तक़वियत दी, ये सिलसिला दूर तक चला। इस तरह दो सकाफ़तें (संस्कृतियां) गले मिल रही थीं।
शुमाली हिंद (उत्तर भारत)
बहरहाल, दकन में क़ुतुबशाही दौर के ज़वाल (पतन) और वहां मुग़लों की बालादस्ती के बाद अवध में फ़ैज़ाबाद और लखनऊ जो अज़ादारी के अहम मरकज़ रहे हैं, गंगा-जमनी तहज़ीब की इस धारा में मरसिया निगारी ने जब जुनूब से शुमाल का रुख़ किया, तो अवध के नवाबों ने दिल खोलकर सरपरस्ती की। उन्होंने मंदिर बनवाये तो लखनऊ के आसपास की रियासतों के राजाओं व अमीरों ने मस्जिदें और इमामबाड़े बनवाये। हुसैन से अक़ीदत रखने वालों और शहादते उज़मा पर गिरया (रोने वाले) करने का जो सिलसिला राम राव तख़ल्लुस शिवा और दास ने शुरू किया था 18वीं सदी तक जब शुमाली हिंद में उर्दू मरसिया की दाग़बेल पड़ी तो वालिए बनारस राजा बलवान सिंह का नाम सामने आया। उनके वालिद राजा चैत सिहं को अंग्रेज़ों ने बनारस में टिकने नहीं दिया तो वो आगरा आ गये। बलवान सिंह ने आगरा में नज़ीर अकबर आबादी की शागिर्दी में क़लम उठाया और राजा तख़ल्लुस से मरसिये लिखे। लेकिन मुजाविर हुसैन रिज़वी ने अपने तहक़ीक़ी मक़ाले (शोध) उर्दू मरसिये के ग़ैर मुस्लिम शोअरा में राजा बलवान सिहं से पहले तज़कर-ए-मुसर्रत अफ़ज़ा के हवाले से राजा कल्लयाण सिहं वलद राजा शताब राय और सआदत हसन नासिर के तज़करे ख़ुश मारक-ए-ज़ेबा के हवाले से लाला फ़तह चंद शायक़ को उर्दू के अव्वलीन गैर मुस्लिम मरसिया निगार बताया है। फिर भी बनारस के राजा बलवान सिहं राजा अवल्लीन मरसिया गो की सफ़ में हैं। नज़ीर अकबराबादी के शागिर्द का अंदाज़े सुख़न मुलाहेज़े हो…
सियाह पोश है मातम में चरख़ ज़ंगारी
रवां है चश्म ज़मीं से सरशक गुल नारी
कि आज रुख़्सते अब्बास की है तैयारी
ये बैत क्यों ना हो पैहम ज़बा पर जारी
दमे कि लश्करे ग़म सफ़ कश्द ब ख़ूं ख़्वारी
वलम व नाला दहद मनसब अमल दारी
इस दौर के दूसरे गैर मुस्लिम शोअरा में राजा उलफ़त राय उलफ़त, कुंवर सेन मुज़तर और सिधनाथ फ़िराक़ के नाम भी क़ाबिले ज़िक्र हैं पर इन सब पर भारी हैं छन्नूलाल तरब जो बाद में मियां दिलगीर के नाम से मशहूर हुए। इसके अलावा पदम् भूषण गोपीनाथ अमन लखनवी व उनके भाई गुरसरन लाल अदीब, लाला राम प्रसाद बशर, उलफ़त राय मुहिब, विश्वनाथ प्रसाद माथुर, योगेन्द्र पाल शिकोहाबादी, नथ्थूलाल वहशी वग़ैरा बहुत नाम हैं, ये फ़ेहरिस्त बहुत तवील है। कशमीर के रहने वाले पेशे से कारोबारी इरफ़ान तुराबी ने इन गैर मुस्लिम शायरों पर बडा अहम तहकीकी काम किया है और इनकी कई किताबें मंजरेआम पर आ चुकी हैं।
मुग़लिया हुक्मरानों की दारुल सलतनत देहली और अवध के नवाबीन की दारुल सलतनत लखनऊ, मरसिये के इरतक़ा और फ़रोग़ (विकास) के अहम मरकज़ बन गये।
छन्नू लाल तरब व दिलगीर
मुंशी छन्नूलाल दिलगीर के बग़ैर गैर मुस्लिम मरसिया निगारों का बाब नातमाम है। इनके बुज़ुर्ग शम्साबाद के रहने वाले थे, मगर छन्नूलाल की पैदायश और तरबियत लखनऊ में हुई। इनका ज़माना 19वीं सदी की पहली दहाई है। पहले ये तरब तख़ल्लुस से ग़ज़लें कह रहे थे और जवानी में ग़ज़ल पर ख़ूब दाद लूटी लेकिन दुनियावी ऐशो-तरब से दिल बरदाश्ता (विरक्त) होकर तमाम ग़ज़लें गोमती में ग़र्क़ करके तरब तख़ल्लुस भी तर्क कर दिया और दिलगीर तख़ल्लुस इख्तियार करके फ़क़त मरसिये को ही शआर बना लिया। बक़ौल मसहफ़ी ,नामे दर मरसियागोई पैदाकरदा, शेफ़ता ने भी इनके फ़न का एतराफ़ किया। इनके ज़माने में दूसरे मरसिया गो नई राहें तलाश कर रहे थे मगर मियां दिलगीर अपनी डगर पर डटे रहे। मरसिये में मकालमाती (संवाद की शैली) अंदाज़-ओ-बयान की फ़िज़ा भी दिलगीर ने क़ायम की। कलाम में दर्द और सोज़ की बिना पर अवाम में मक़बूल होते रहे। अपने पीछे बहुत से शागिर्द छोड़ गये।
रिक़्क़त और बैन कलाम की तासीर हैं…
ज़ोहर तक जब मर चुके सब अक़रबा शब्बीर के
और रहा कोई ना मैदां में सिवा शब्बीर के
इक क़लम डूबे लहू में जां फ़िदा शब्बीर के
टुकड़े टुकड़े हो गये सब अक़रबा शब्बीर के
दिल पे अपने ठान के अज़्मे शहादत को इमाम
ख़ेमाए अक़दस में आये सबसे रुख़्सत को इमाम
पहले पुरसा ख़्वाहरे ग़मगीं को बेटों का दिया
फिर रुक़्य्या से कहा जोकुछ के ख़ालिक़ की रज़ा
मादर-ए- इब्ने हसन को सब्र का फ़रमां हुआ
छोटी भावज को भी पुरसा फिर दिया अब्बास का
फिर किया इरशाद ऐ बानो-ए-पुरग़म सब्र कर
अकबरो-असग़र के ग़म में तू हरएक दम सब्र कर
फिर किया शै ने लिबासे कोहना अपने ज़ेबे-तन
उसके ऊपर आपने पहना मुकल्लफ़ पैरहन
यूं लगा ज़ैनब से कहने यादगारे पंजेतन
आख़री पोशाक भी भाई को पहनाओ बहन
आज तुमको आख़री भाई की ख़िदमत है ज़रूर
ऐ बहन इस अम्र में भाई की ख़िदमत है ज़रूर
कट गया जब तन से सर शब्बीर का
फूंका अहले-कीं ने घर शब्बीर का
देखो लाशा ख़ूं से तर शब्बीर का
आया है मुजरे को सर शब्बीर का
सीना-ए- अकबर पे जब नेज़ा लगा
शै ने सीने से उसे लिपटा लिया
ग़ैब से आई फ़रिश्तों की सदा
ग़ौर से देखो जिगर शब्बीर का
मोहक़्क़ीन ने दिलगीर के शेरी सरमाये को ज़मीर और फ़सीह के बराबर मक़ाम दिया है। इनका अंदाज़े बयां इनफ़रादी था। कहते हैं कि दिलगीर के इस शेर को सुनकर कि…
कहती थी बानो इलाही कीजियो वारिस की ख़ैर
आज क्यूं सर से ढली जाती है चादर बार बार
मीर अनीस अपना सारा दफ़्तर देने को तैयार हो गये थे।
लखनऊ के पद्मभूषण गोपीनाथ अमन और उनका ख़ानवादा इस सिलसिसे की अहमतरीन कड़ियां हैं। 1892 में लखनऊ के मौहल्ला ग़ौस नगर में पैदा हुए। वालिद महादेव प्रसाद उर्दू-फ़ारसी में शेर कहते थे, अहलेबैत से ख़ास अक़ीदत थी। महादेवजी अपने बेटों को लेकर मजलिसे अज़ा में जाया करते थे। उस दौर में अदबी व सक़ाफ़ती लिहाज़ से मजलिसों की बड़ी अहमियत थी। अमन लखनवी की परवरिश इसी माहौल में हुई। ये मिर्ज़ा हादी अज़ीज़ लखनवी की शागिर्दी में आये, उर्दू, फ़ारसी और हिंदी तीनों ज़बानों में शायरी की। अमन ने हज़रत मोहम्मद (स) की सना में 7 नातें कहीं हैं, अहलेबैत अतहार में हज़रत अली, इमाम हसन, इमाम हुसैन, ह. क़ासिम, हज़रत अली असग़र व दीगर शोहदा से मुताल्लिक़ 24 सलाम, 20 रुबायात, 2 मरसिये और 20 क़सीदे तसनीफ़ किये हैं। इनके कलाम के कुछ नमूने पेश हैं –
पेश करता हूं कुछ नज़रे अक़ीदत हर साल
ताकि इससे मेरे आमाल में तनवीर आये
परस्तिश रवा नहीं है मोमनीन को
मुझे ये हक़ कि पूजता हूं दीदा-ए-पुरआब से
अमन ज़ात का हिंदू है उसे हैरत क्या
अगर अली को नुसैरी ख़ुदा समझते हैं
गुरसरन लाल अदीब अमन के छोटे भाई थे। लखनऊ की साझी संस्कृति के बारे में लिखते हैं कि मुसलमानों की तरह हिंदू भी बुरे मसय में या अली मुरतज़ा, दूर हो सबकी बला कहते थे। अक़ीदत का ये आलम था कि नाम भी इमामों के नाम पर रख लिए थे मसलन राजा इमाम बख़्श कायस्थ थे। अमन व अदीब के के दादा लक्ष्मी प्रसाद के यहां चेहलुम तक कोई शुभ शगुन की रस्म अदा करने की इजाज़त नहीं थी। अमन लखनवी के बेटे धर्मेंद्रनाथ का कुछ अरसा पहले इंतेक़ाल हुआ है उन्होंने भी अपने बुज़ुर्गों की इल्मी व अदबी विरासत को आगे बढ़ाया।
मिर्ज़ा दबीर की शागिर्दी में भी कई अहले हुनूद शायरों ने मरसिये कहे। मसलन उनके शागिर्दों में बख़्शी अल-मुल्क राजा उलफ़त राय उलफ़त, इनके बेटे कुंवर धनपत राय मुहिब्ब और राम प्रसाद बशर भी अपने मरसियों पर मिर्ज़ा दबीर से इस्लाह लेते थे। बशर पर दबीर का रंग देखिए…
बैचैन थी सुग़रा जो फ़िराक़े पदरी से
हाथ उठा यही कहती थी नसीमे सहरी से
कालीदास रज़ा गुप्ता के मुताबिक़ बशऱ जिंदगी के आख़िरी दिनों में कर्बला चले गये थे वहीं उनका इंतक़ाल हुआ और दफ़नाये गये। लाला हर प्रसाद अगरचा ख़ुद मरसिया नहीं कहते थे लेकिन दूसरे शायरों के मरसिये पढ़ा करते थे, ख़ासतौर से हज़रत अब्बास की दरगाह से जो जुलूस निकलता था।
इमाम ने ज़ाहिर की हिंदुस्तान आने की ख़्वाहिश
विश्वनाथ माथुर लखनवी का ताल्लुक़ रजवाड़े से था। इमाम हुसैन पर कर्बला में जब यज़ीद ने उनसे अपनी बैअत कराने के लिए ज़ुल्मो सितम की इंतहा करदी तो इमाम ने हिंदुस्तान आने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी, इस बात का तारीख़ी पसमंज़र एक अलग मौज़ू है, लेकिन इमाम की इस ख़्वाहिश पर हिंदोस्तां वालों और सरज़मीने हिंद को नाज़ है, कई हिंदू मरसिया निगारों ने इस बात को नज़्म किया है… देखिए विश्वनाथ माथुर क्या कहते हैं…
जब से आने को कहा था कर्बला से हिंद में
हो गया इस रोज़ से हिंदोस्तां शब्बीर का
बचपन में हमने किशन नाम के नोहा ख़ां से अक्सर ये नोहा सुना है..
भारत में अगर आ जाता हदृय में उतारा जाता
ये चांद बनी हाशिम का यूं युध में ना मारा जाता
अमरोहे के हुसैनी शायर भुवनेश्वर कुमार शर्मा भुवन कह रहे हैं…
हिंद का नाम जो आया था ज़बां पर इनकी
इसलिए याद भी हैं इनकी मनाते हिंदू
हिंद में काश हुसैन इब्ने अली आजाते
चूमते इऩके क़दम पल्कें बिछाते हिंदू
आगे कहते हैं…
इनके ख़ेमे भी लगे गंगा किनारे होते
इनके घोड़ों को भी जल इसका पिलाते हिंदू
जंग करने यहां शब्बीर से आता जो यज़ीद
इसको रावन की तरह धूल चटाते हिंदू
अपने कर्मों से वो दोज़ख़ में तो जाता ही मगर
पहले भारत में चिता इसकी जलाते हिंदू
हिंद में ख़्वाजा-ए-अजमेर हैं औलादे हुसैन
उनके दरबार में मस्तक हैं झुकाते हिंदू
देते हालात इजाज़त तो अक़ीदत की क़सम
कर्बला तक भी बड़ी श्रधा से जाते हिंदू
ऐ भुवन कैसे मुसलमान थे शै के क़ातिल
दिल में अक्सर ये ख़्याल अपने हैं लाते हिंदू
उनके लब पर कर्बला में हिंद का आया था नाम
हिंदुओं को यूं अक़ीदत हो गई शब्बीर से
डा. नथ्थू लाल वहशी मुज़फ़्फ़रपुरी के मुताबिक़…
हिंदू अगरचा वहशी बादा परस्त है
लेकिन मये हुज्जते हैदर से मस्त है
रघुनाथ राव जज़्ब इलाहाबाद के रहने वाले थे, इन्होंने रूबाइयात के ज़रिए अपनी अक़ीदत का इज़हार किया। पुरानी दिल्ली में पंडित अमरनाथ सालिक देहलवी जिन्हें मौलाना सालिक पाकबाज़ भी कहा जाता था, उन्होंने मिर्ज़ा ग़ीलिब का ज़माना देखा। गुलज़ार देहलवी के मुताबिक़ मिर्ज़ा ग़ालिब लगभग ज़िंदगी के आख़री पड़ाव पर थे और सालिक पाकबाज़ 16 बरस के थे, इन्होंने ज़माने के दस्तूर के मुताबिक़ आले रसूल से अक़ीदत का इज़हार फ़ारसी में किया।
रूप कुमारी या रूप कुमार
कनाडा मुक़ीम पेशे से डाक्टर तक़ी आबदी की इल्मी, तहक़ीक़ी ख़िदमात का ये नतीजा है कि आगरा की हिंदू शायरा रूप कुमारी का ग़ैर मतबूआ गुमशुदा नातिया और रसाई कलाम को कुछ साल पहले खोज निकाला। इनकी तहक़ीक़ से पहले रूप के महज़ दो मरसिये दस्तियाब थे जो उत्तर प्रदेश में मोहर्रम के दौरान मजालिसे अज़ा में कहीं कहीं पढ़े जाते थे। मेरठ में तक़ी हुसैन के छत्ते के इमामबाड़े में सैयद यूसुफ़ हुसैन ज़वाल, सादात बारह जिला मुज़फ़्फ़र नगर के देहात मुझेड़ा में शेख़ मतलूब हुसैन कसीर और ख़ुद मेरे आबाई वतन लावड़ में हमारे बुज़ुर्ग रूप के मरासी पढ़ा करते थे। रूप कुमार की ज़िंदगी के बारे में इतना मालूम हो सका है कि वो ज्यादा दिन ज़िंदा नहीं रहीं, लेकिन उनकी मौत कब और कैसे हुई ये मालूम नहीं हो सका। उनकी तख़लीक़ी उम्र महज़ सात बरस (1931-37) रही, क्योंकि पहला सलाम 1931 में और आख़री मरसिया 1937 में तसनीफ़ किया। रूप कुंवर की शादी नहीं हुई, एक मतबूआ मरसिये पर मिस रूप कुंवार लिखा है। क़यास है कि 1938 से पहले ही इंतक़ाल हो गया था। डा. तक़ी आबदी ने 5-6 किताबों, रसायल और कुछ शख़्सी ख़तों की बुनियाद पर रूप कुमारी या रूप कंवर के अहवाले ज़िंदगी को जमा किया। इसके लिए तक़ी आबदी ने सैयद मोहम्मद हमीद रिज़वी के कुतुब खाने के क़लमी नुस्ख़ों से इस्तफ़ादा हासिल किया। बाज़ाप्ता तौर पर रूप की सवानेह दस्तियाब नहीं है आगरा में कश्मीरी ब्रहमण घराने में पैदा हुई रूप काफ़ी पढ़ी-लिखी ख़ातून थीं। शायरी के लिए पहले उस्ताद फ़ज़ल रसूल फिर नज्म आफंदी की शागिर्द रहीं इन उस्तादों की सरपरस्ती में मज़हबे इस्लाम की तारीख़ पढ़ने का मौक़ा मिला। डा. आब्दी की तहक़ीक़ी किताब ..रूप कुमारी – फ़न, शख़्सियत और मजमुए कलाम में अब रूप कुमार के 5 मरसिये, 2 सलाम एक मुसद्दस, एक मुख़म्मस और 10 क़तआत शामिल हैं। रूप कुमार ने मरसियों के अलावा नातिया, मनक़बती शायरी भी की, सलाम भी लिखे और साक़ीनामा भी। रूप की ज़बान पर मुक़ामी बोली का असर, भक्ती-रंग और अरबी-फ़ारसी अलफ़ाज़ की ख़ूबसूरत आमेज़िश गंगा-जमनी तहज़ीब की अक्कास है…
हल हो या उक़्दाकुशा अदरिकनी
आलम-ए इल्मे रसूल अदरिकनी
ऐ मुहीत-ए-करम-ओ जूदा सख़ा अदरिकनी
ऐ दुरे ताज सरे अरशे अला अदरिकनी
आपकी गर मदद-ऐ दीन की सुल्तां हो जाये
नुक्ता-नुक्ता मेरा ख़ुरर्शीद-ए-दरख़्शां हो जाये
एक मरसिये के इखतताम पर रूप कहती हैं…
ख़मोश रूप कुमारी कि हश्र है बरपा
तड़प रहे हैं मोहिब्बाने फ़ातिमा ज़ेहरा
उठाके हाथ ये परमात्मा से मांग दुआ
मैं सदक़े ऐ मेरे ईश्वर मुझे वो दिन दिखला
कि पहले दरे फ़सले रसूल पर पहुंचूं
वहां से मरक़दे इब्ने बतूल पर पहूंचूं
फ़ातिमा बिंते मोहम्मद की कनीज़ होने का शरफ़ और उस्ताद फ़ज़ल रसूल की शागिर्द होने की बात को यूं कह रही हैं कि…
बुतों को छोड़ा तो फ़रज़ंदे बूतुराब मिला
जो घर को छोड़ा तो ख़ुल्दे बरीं का बाब मिला
किया जो कायापलट रूप ने ब-फ़ज़ल-ए-रसूल
कनीज़ फ़ातिमा ज़ेहरा इसे ख़िताब मिला
रूप के यहां भक्तिभाव देखिए…
सबक़ पढ़ो तो भक्तों का इनसे पढ़ो
ये जिससे राज़ी हैं भगवान इससे राज़ी है
यही ऋषि हैं यही देवता यही अवतार
यही इमाम यही पेशवा-ए-रूप कुमार
शहादते हज़रत अली असग़र पर रूप का मरसिया बाद-ए-इरफ़ान क़ाबिले ज़िक्र है…
मतला है…
उरूसे नज़्म की ज़ीनत सना-ए-हैदर है
बयां का हुस्ने लताफ़त सना-ए-हैदर है
गुले रियाज़ फ़साहत सना-ए-हैदर है
ख़ुदा की ऐन इबादत सना-ए-हैदर है
जो हक़ शनास हैं इनको सना ये भाती है
यही सना तो बहिश्ते-बरीं दिखाती है
आगे लिखती हैं…
इसी सना से खुला है मेरे कलाम का बाग़
यही सना है फ़रिश्तों की अंजुमन का चिराग़
इसी सना से मेरा आज अर्श पर है दिगाग़
इसी सना का ख़ुदा तक लगा चुकी हूं सुराग़
बिना हुई शबे – मेराज इस सना के लिए
जो मुस्तफ़ा के लिए था, वो मुरतज़ा के लिए
इसमें कुछ शक नहीं कि सुख़नदां हूं मैं
हक़ के महबूब की मद्दाही पे नाज़ां हूं मैं
कर दिया है मुझे मद्दाही-ए-सरवर ने निहाल
बदर की तरह से पाया मेरी क़िस्त ने कमाल
पंजाब व हरियाणा
बात पंजाब की जहां की मिट्टी में सूफ़ी संतों की बानी पहले गूंज रही थी वहां भला आले रसूल से अक़ीदत का इज़हार क्यों ना होता। इस मौज़ू पर कशमीर के इरफ़ान तुराबी ने ग़ैर मुस्लिम शायरों की सीरीज़ की कड़ी में तक़रीबन 8-9 किताबें लिख डाली हैं। कशमीरी पंडित, अवध के गैर मुस्लिम मरसिया गो और पंजाब के हुसैनी शायरों पर उनकी दो किताबें मंज़रेआम पर आचुकी हैं। इनमें से कुछ अहम नामों का ज़िक्र करते चलें।
संत दर्शन सिहं दुग्गल इस सिलसिले का अहमतरीन नाम है। 1912 में रावलपिंडी में पैदा हुए 1989 में दिल्ली में इंतेक़ाल हुआ। ये सावन कृपाल रूहानी मिशन के बानी संत कृपाल सिंह के बेटे थे। संत-फ़क़ीरों की सोहबत ने इनहें दुरवेश सिफ़त बना दिया था।
दर्शन जी World Fellowship all Religions के मुखिया रहे और दुनिया के तमाम बड़े मज़ाहिब का तक़ाबुली मुताला किया। इमाम हुसैन के बारे में लिखते हैं…
यक़ीं की र्ज़ब हर एक पैकरे गुमां के लिए
हुसैन बर्क़ है बातिल के आशियां के लिए
हुसैन दर्द को, दिल को दुआ कहते हैं
हुसैन असल में दीने ख़ुदा को कहते हैं
बरोज़ हश्र में निशात-ए-दवाम बख़्शेगा
हुसैन दर्शन-ए-तिश्ना को जाम बखॉशेगा
या
हुसैन लश्करे बातिल का ग़म नहीं करता
हुसैन अज़्म है माथे को ख़म नहीं करता
पंजाब के हुसैनी शायरों में दूसरा बड़ा नाम डा. सतनाम सिंह ख़ुमार का है (1935 में पैदायश, पटियाला में 1997 में कार हादसे में मौत) पंगाब व उत्तर प्रदेश में मोहर्रम की मजलिसों के अलावा हुसैनी मुशायरों और महफ़िलों की अदबी रिवायत रही है, जिसमें मरसियों के अलावा शायर लजड्म की शक्ल में सलाम, मनक़बत, रूबाइयात या क़तआत पेश करते थे। सतनाम सिंह इन हुसैनी मुशायरों की जान थे। पेशे से टीचर, फिर दिल्ली में एनसीईआरटी में मुलाज़मत की, फिर गुरुनानक यूनिवर्सिटी में पढ़ाया। हुसैनी मुशायरों में क़सीदों, नात, मनक़बत, मरसियों के ज़रिए सामईन से खूब दाद हासिल करते रहे।
हुसैनी नाम को ऐ आफ़ताब सज्दा कर
तुझे ये करना है रौशन इमाम है तेरा
ख़ुमार शाने करीमी की तुझपे बरकत है
अक़ीदतों से मुरस्सा कलाम है तेरा
ख़ुमार से पहले पंजाब के सिख संत पूरन सिहं हुनर हुसैनी मुशायरों की रौनक़ थे। इनके अलावा कुछ नाम हैं जिनके बग़ैर हुसैनी मुशायरों का बाब नामुकम्मल रहेगा मसलन ललिता प्रसाद शाद मेरठी, राम प्रताप अकमल, प्रेमचन्द्र गुप्ता प्रेम, दिगम्बर प्रसीद जैन गौहर, राय सिधनाथ माथुर, फ़िराक़ी दरियाबादी, कुंवर सैन मुज़तर, राजा राय उल्फ़त, राम नारायण जिगर, बाल मुकुंद, दल्लू राम कौसरी, सतीश चन्द तालिब, डा. नत्थू लाल वहशी, अमृत लाल नागर, रघुनाथ सहाय मेहर, प्रो. जावेद वशिष्ठ, बशेश्वर प्रसाद मुनव्वर लखनवी, जस्टिस विशाल मिश्रा, दिवाकर राही और कुंवर महेन्द्र सिहं बेदी। सैयद मेहमूद नक़वी के मुताबिक़ इन शायरों में से फ़िराक़ी दरियाबादी ने सबसे ज्यादा लगभग 12-13 मरसिये लिखे। ये विश्वनाथ प्रसाद माथुर के चचा थे और मिर्ज़ा मोहम्मद ताहिर से इस्लाह लेते थे।
एडवोकेट शगुन चन्द्र रौशन पानीपती
सब्र और है तसलीमो-रज़ा और ही कुछ है
हक़ बात पे मरने का मज़ा और ही कुछ है
यूं तो बहुत हैं दहर में ईसार के बंदे
ईसारे-इमामुस शोहदा और ही कुछ है।
चैतराम हरयानवी रहबर
आज रहबर हर ज़बां पर है हुसैनी तज़करा
ये सुबूते बेगुनाही का है चर्चा आज तक
प्रो. जावेद वशिष्ठ बता रहे हैं कि देश में गंगा जमनी तहज़ीब अक़ीदतों के बीच किस तरह परवान चढ़ी –
अश्नान करके आया है संगम पे बरहमन
और ख़ाके कर्बला का तिलक लाजवाब है
जावेद मदह ख़्वाह है तेरा बिंते मुर्तज़ा
ये बरहमन इसीलिए इज़्ज़त मआब है
वक़ारे ख़ूने शहीदाने कर्बला की क़सम
यज़ीद मोर्चा जीता है जंग हारा है
इस शेर ने दिवाकर राही की शायरी को उम्रे जावेदां बख़्शदी
एक शेर का ये मिसरा कि…
काफ़िर हूं मगर क़ातिले शब्बीर नहीं हूं…
एक तरफ़ मज़हब से ऊपर उठकर इंसानी अक़दार की वकालत तो दूसरी तरफ़ हक़ और बातिल की जंग में यज़ीदियत पर चोट।
विश्वनाथ प्रसाद माथुर…
कहां यज़ीद कहां अज़मते हुसैनियत
कोई जफ़ा के लिए था, कोई वफ़ा के लिए
कोई है नूर का मरकज़. कोई है शोला-ए-नार
किसे चुनेंगे मुसलमान रहनुमा के लिए
चौधरी दल्लूराम कौसरी
कौसरी ने इस बंद में क्या ख़ूब क़ुरान की आयत को नज़्म किया है…
क़ुरआं हुसैन पढ़ते थे उस वक़्त विल-यक़ीं
सीने पे था चढ़ा हुआ जब क़ातिले लईं
आवाज़े दर्दनाक में कहते थे शाहे दीं
इय्या का नआबदो कभी इय्या का नस्तईं
क़ाबिले ज़िक्र है कि अपने अपने मज़हबी अक़ायद पर क़ायम रहते हुए एक दूसरे के मज़हब के रूहानी पैग़ाम व फ़लसफ़े को समझने के इस दोतरफ़ा अमल एक मसबत कोशिश थी, कहीं कोई मजबूरी या सियासी दवाव नहीं था। आज बड़े बड़े इदारे भी Interfaith dilauge के नाम पर लाखों रुपये ख़र्च करके वो काम नहीं कर पाते जो हमारे बुज़ुर्गों ने सक़ाफ़ती मेलजोल के ज़रिए बग़ैर किसी प्लान के गंगा-जमनी तहज़ीब को क़ायम करने की सिम्त में किया।
रसाई शायरी में गैर मुस्लिम शोअरा की हिस्सेदारी पर कालीदास रज़ा गुप्ता, अज़ीम अमरोहवी, मुजाविर हुसैन रिज़वी, अकबर हैदरी काशमीरी और कशमीर के ही रहने वाले इरफ़ान तुराबी ने तहक़ीकी काम किया है। अज़ीम अमरोहवी ने जहां अपनी तहक़ीक़ में तक़रीबन 50 हिंदू शायरों का ज़िक्र किया है, इस सिम्त में इरफ़ान तुराबी ने तो सिख हुसैनी शायरों से लेकर, कशमीर, पंजाब और अवध के अहले हुनूद शायरों पर अलग-अलग किताबें तरतीब दे डाली हैं और इसतरह उनकी तादाद 450 से भी ऊपर है। लेकिन इनमें सभी ने मरसिये तसनीफ़ नहीं किये, नात, मनक़बत व रुबाइयात भी शामिल हैं। डा. ध्रमेंद्र नाथ और लईक़ रिज़वी की किताबें भी आ चुकी हैं।
आख़िर में लाला दिगंबर प्रसाद गौहर देलवी के इस क़ता के साथ बात ख़त्म करती हूं कि
मख़सूस ना महकूम ना सरवर के लिए है
मसरूर ना मजबूर ना मुज़तर के लिए है
तख़सीस ना हिंदू की ना मुस्लिम की है इसमें
शब्बीर का पैग़ाम जहां भर के लिए है।
(अकबर के दरबार में मुल्ला मुबारक नागौरी के दो बेटे अबुल फ़ज़ल और फ़ैज़ी बड़े आक़िलो-फ़ाज़िल थे। अबुल फ़ज़ल की निगरानी में मुक़ामी उलूम की किताबों के तर्जुमों का काम हो रहा था। अबुल फ़ज़ल के वालिद मुल्ला मुबारक नागौरी के ज़रिए मुल्ला अब्दुल क़ादिर बदायूनी को भी तर्जुमे के इस महकमे में काम मिल गया। बदायूनी ने यहां महाभारत का फ़ारसी में तर्जुमा रज़्मनामा के नाम से किया। इसके बाद उसे अर्थवेद और रामायण के तर्जुमों का काम सौंपा गया, अर्थवेद का तर्जुमा वह पूरा नहीं कर सका लेकिन अब्दुल क़ादिर बदायूनी ने 6 साल में रामायण का तर्जुमा दास्तान-ए-राम-ओ-सीता के नाम से पूरा किया। इसमें रामकथा से मुताल्लिक़ रंगीन तसावीर भी थीं। अकबर के दरबार में हिंदू मुसव्विरों ने फ़ारसी तर्जुमे के साथ ये तसवीरें बनाईं।)